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Sunday, December 1, 2013

पुस्तकायन : अपने लिए जगह

पुस्तकायन : अपने लिए जगह: Jansatta
जनसत्ता 01 दिसंबर, 2013 : रचना ध्वनि है, वैक्यूम के बाहर एक स्पेस की तलाश करती। यह स्पेस काल के अनंत का स्पेस है, जिसमें अगणित स्मृतियां हैं और है अनंत कामनाओं का जंगल। इस अरण्य का स्थायी निवासी कवि है, जो बुनता है ऐसी चादर कि शेर अपनी राह यह जान कर पकड़ लेता है कि उसके रास्ते कहीं नहीं आता धुनक...। यह कथा है- असंभव को संभव करती शब्दों की कथा, जो समाज और संस्कृति को जिस दिशा में चाहे, उस दिशा में अग्रसर कर दे। आखिर सपने हम शब्दों में देखते हैं और उनकी तामीर भी शब्दों में ही करते हैं- शब्द ही वे खोखल हैं, जिनमें स्मृतियां बसती हैं। स्मृति ही हमारी पहचान भी है और आगत का
संकेत भी।
अरुण देव के संग्रह कोई तो जगह हो में संकलित कविताएं ऐसे ही स्पेस की तलाश करती हैं, जहां कवि सहज परिचित रास्ते को छोड़ कर, अज्ञात के आकर्षण की डोर थामे, आशंका के कांपते पत्तों के बीच, अपने से भी दूर निकल जाना चाहता है। यह यात्रा ‘नई शुरुआत की कामना से भरी यात्रा है, जिसका लक्ष्य है घमंड, आत्मा के मैल और कपट से मुक्ति।’
अरुण देव सहज ही ऐसे प्रतिबद्ध कवि हैं, जिनकी कविताएं शोषितों-वंचितों की हिमायत करती हैं, जिनमें यह अहसास और दुख है कि हम इतने लोभी हो गए हैं कि किसी विलुप्त प्रजाति की मछली का कांटा गले (मन?) में नहीं चुभता।
ऐसे में जंगल के दावेदार अस्त्र-शस्त्र न उठाएं तो क्या करें, क्योंकि कवि जानता है कि भले ओबामा बन जाएं राष्ट्रपति, अमेरिकी नीतियों में कोई फर्क नहीं आने वाला: ‘अंतत: ओबामा को एक बुश, क्लिंटन या रीगन ही होना है/ वह मार्टिन लूथर किंग नहीं हो सकता!’ ओबामा का आना नीतियों में बदलाव नहीं, बल्कि अस्मितापरक राजनीति का वह रूप है, जिसका उपयोग यथास्थितिवादी शक्तियां अपना दबदबा बनाए रखने के लिए करती हैं। इस आड़ में वे वर्गचेतना को खत्म कर डालती हैं। इस अर्थ में अरुण ठेठ वर्गचेतना से संपन्न कवि हैं, जो सभी शोषितों, निर्धनों के पक्ष में अपनी आवाज उठाते हैं। उन्हें बेरोजगार पिता के झुके कंधे भी दिखाई पड़ते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि जीवन की शुभता की ओर से कवि अनभिज्ञ है।
अरुण की कविताओं में प्रेम कई रूपों में दिखाई पड़ता है। उनमें प्रेयसी की जब-तब विकल कर देने वाली स्मृतियां भी हैं और पत्नी का सहज जलधार जैसा प्रेम भी। इस प्रेम में गहरी कृतज्ञता का भाव है, जो क्रमश: तमाम स्त्री जाति के प्रति कृतज्ञता में बदलता प्रतीत होता है। यह प्रेम शुरू होता है ‘चमकीली आंखों से उस निहारते हुए लड़के’ को याद करते हुए ‘जो अपनी एटलस साइकिल से कई चक्कर लगा लेता था रोज ही लड़की के घर के सामने तेज घंटी बजाते हुए।’ एक ऐसी इच्छा, जो करने वाला भी जानता है, कभी पूरी न होगी। ...क्योंकि आप भले ही ‘मिटकौवा’ से मिटा लें अतीत को, पर कोई न कोई निशान छोड़ ही जाएगा मिटकौवा अपने होने का- ‘जीवन की स्पेलिंग अगर बिगड़ जाए/ मिटकौवा नहीं देता अवसर।’
अरुण की प्रेम कविताएं गहरे नॉस्टेल्जिया की कविताएं हैं: ‘इस प्रेम में/ प्रेम के ध्वंस की उदासियां/ पार करता हूं वह नदी, वही नदी/ तट का बालू हमारे बीच/ उसके नाम से बुला बैठता हूं तुम्हें/ इस प्रेम में उस प्रेम की शुरुआत...।’
यह खो गया प्रेम है, जो कवि के मन में अब भी एक निश्चित स्थान बनाए हुए है! पर

अब जो है, क्या उसे प्रेम का हक नहीं? यह चुनौती है कवि के सम्मुख, जिसे कवि बहुत ईमानदारी और बेबाकी से स्वीकार करता है: ‘तुम्हारे साथ कोई तुम-सा याद आता है!’ सवाल यह भी है कि एक पुरुष ऐसी बातों को याद करते हुए ईमानदार और बेबाक कहलाएगा और कह सकेगा कि: ‘बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम’ और ‘लौट कर जब आता हूं तुम्हारे पास/ तुममें ही मिलती है वह स्त्री/ अचरज में भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूं/ तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा...।’
यह वही स्त्री है, जो कवि के शब्दों में ‘सहज ही ऐसा प्रेम करती है कि कवि इस लायक रह पाता है कि प्रेम कर सके।’
‘पत्नी के लिए’ शीर्षक से लिखी यह ठेठ पुरुष मन की कविता है, जो स्त्री की हर बात में सहजता खोज लेता है- बिना कोई सवाल किए! स्त्री देखती है, कुछ नहीं कहती, क्योंकि घर का सवाल है: ‘जो प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारियों से बना है...।’
पर यह तो मानना ही होगा कि अरुण को गहरे में स्त्री मन की पहचान है।
स्त्री के प्रति करुणा का भाव अरुण देव की कविताओं का केंद्रीय भाव है। ‘सरयू में कांप रही थी अयोध्या’, ‘आया अपने घर’, ‘छल’, ‘आटे की चक्की’ में यह बात खूब देखी जा सकती है। ‘छल’ की ये पंक्तियां: ‘भाषा से परे/ मेरी देह की पुकार तुम्हारी देह तो समझती है/ भाषा में तुम करती हो इनकार/ और सितम कि भाषा भी चाहती है यह इनकार...।’
इस तरह भाषा और स्त्री को एक साथ रखने की बात कवि को निश्चय ही दिखावटी संवेदना से कहीं ऊपर ले जाती है, एक गहरी भावभूमि पर।
पर यह बात पूरी न होगी बिना ‘सरयू में कांप रही थी अयोध्या’ की मार्मिकता से गुजरे बगैर। ये ‘खुदमुख्तार औरतें’ हैं, जो किसी जमाने में अदब और तहजीब के लिए जानी जाती थीं और जिनके दम पर ढेरों राग-रागनियां जीवित थीं और जीवित थे हमारे पुरखे कवि-शायर। पर बाजारवाद ने उन औरतों को बेदखल कर दिया अपने ही घर-मुहल्ले से बेआबरू करके।
अरुण देव के लिए लेखन, परंपरा से जुड़ने और उसे ‘संशोधित-संवर्धित’ करते रहने की कोशिश है, इसीलिए उनकी कविताओं का कंठ आदिकवि वाल्मीकि के आर्द्र स्वर से भीगा है और उसमें लगातार यह चाह बनी हुई है कि कोई भी रचना न तो सत्य का अकेला भाष्य हो, न ही वह शास्त्रार्थ के शब्दों का जाल बने, बल्कि उसमें विनम्रता ऐसी हो, जो मन में कृतज्ञता उत्पन्न करे। अरुण बहुत अपनेपन से मीर, गालिब, जयशंकर प्रसाद आदि को याद करते हैं, उनसे नाता जोड़ते हैं। आखिर स्मृति-विहीन न तो समाज होता है, न साहित्य। अपनी जड़ों से जुड़े बिना कोई भी समाज भविष्यदर्शी हो ही नहीं सकता।
उनके पहले काव्य संग्रह ‘क्या तो समय’ में भी उनके काव्य के ये तत्त्व परिलक्षित होते हैं। सहाय बाबू दोनों ही संग्रहों में अपनी गरिमापूर्ण उपस्थिति बनाए हुए हैं। ऐसा लगता है जैसे ‘कोई तो जगह हो’ दरअसल, ‘क्या तो समय’ का ही विस्तार है। कवि स्थान और समय दोनों के स्पेस की मांग करता प्रतीत होता है।
सुमन केशरी
कोई तो जगह हो: अरुण देव; राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 250 रुपए।


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